(एक)
नदियाँ विषय भूगोल का थीं, रच रहीं इतिहास ये।
महसूसता हूँ दूर तक आकाश के फैलाव को
डूब जाता झील में निचुड़ा हुआ मेरा बदन
पार करता आँसुओं की खूब गहरी एक नदी को
पीरधारा जिसकी कुछ यों
मानो वह लुप्त हो पथरा गई हो
सरस्वती की तरह।
मेरी पथराई आँखों से पाथर ही बहते
तुम्हारी ही तरह नदियो!
मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
(दो)
लुट गए कितने नगर बस रूठ जाने से महज इनके
अब न वह पतवार, न वह धार, सब बेकार।
साक्षी रहीं ये
नौका विहार से लेकर दाह-संस्कार तक की।
ढेर सारी प्रेयसियों ने बहाये हैं पुराने प्रेम पत्र इनमें
बहतीं ये कलेजे में उन सबको समोते हुए।
उनके छोटे-छोटे किंतुओं और परंतुकों को जीते हुए
मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
मुझे जीने हैं एक-एक पल वो जो दर्ज हैं इन पत्रों में।
(तीन)
पावर प्लांट ने झोंक दिया
नदियों को, उनकी धाराओं को
किसी चूल्हे भाड़ में।
बताता हूँ अपने बच्चे को
कि भाग्यशाली हो बच्चा तुम!
कि देख लो इन नदियों को बहुत-बहुत गौर से
कि ये तुम्हारी ही नहीं, तुम्हारी माँ की भी माँ हैं
अपना राह खुद बनाई थी इन्होंने कभी
पर अब मिलेंगी यह सिर्फ और सिर्फ
कॉर्पोरेट किसी बहुमंजिले म्यूजियम में,
इससे पहले ही मुझे ले चलो अपने देस, नदियो!
मुझे मिलना है ऐसे सभी लोगों से
जिन्होंने अपने रास्ते खुद ही बनाए थे कभी।
(चार)
भले ही दामोदर बन
शोक थीं बंगाल का ये
फिर भी जब पूरी दुनिया उनके खिलाफ है
तब भी तो नील ने ही पूरे एक
महादेश को गोद में अपनी ले रखा है।
ठीक है कि राह बदली कोसी ने बार-बार
पर पाप भी तो धोए हम सबने किसी गंगा में,
और कर्मठता की नदी न बहती हाथ की रेखा में
तो कहाँ जाते कामगार सब!
और कहाँ जाते वे
जो इन्हीं की बहुत सख्त गदोरियों में,
गहरी रेखाओं में बहने वाली धार से
रचते हैं अर्णव अपना!
मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
जहाँ से ला सकूँ सारे कामगारों के
हाथ की सारी मेहनतकश रेखाएँ
और कैद कर दूँ उन्हीं रेखाओं में इस अर्णव को।
(पाँच)
हम सबने प्रवाहित किए सामूहिक मल अवसाद
नदियों में, मूर्तियाँ भी,
वे बदल गईं नालों में।
सोख तो इन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम तक को लिया था
बहुश्रुत किसी सरयू-जलसमाधि में।
पर कितना मल सोखें ये हम कसाइयों का!
हमने ही तबाह किया
अपने सगे मछुवारे भाई का पूरा जीवन,
उसका पूरा परिवार, उसका पूरा आधार
मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
मैं तबाह होना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ तुम्हारी ही तरह नदियो!
(छह)
दजला-फरात से सिंधु तक की सारी कहानी
इनकी बूँदों पर देती है दस्तक,
ये रोती नदियाँ नहीं, मरती जीवनरेखाएँ हैं
मानव की नहीं, पूरी बसावट और पूरी सभ्यता की
इनके इतिहास की किताब के
धूल सने पन्नों में छिपा है राज
कि गंगा पुत्र भीष्म ही अपराजेय क्यों थे
संपूर्ण महाभारत में!
कि तथाकथित संप्रभु ने शस्त्र भी उठाया
तो उन्हीं के खिलाफ!
पर अफसोस
झेलम, चिनाब, रावी, सतलज और व्यास
सबमें कराहती है भीतर उठी एक प्यास,
मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
जहाँ सीख सकूँ कैसे उठवाया जाता है
हथियार किसी संप्रभु से।
(सात)
छोड़ो इनकी महिमा का गान
नहीं तो देवी बन गुलाम हो जाएँगी ये भी
महज एक बुत की शक्ल में,
खत्म हो जाएँगी महज एक प्रतीक बन ये,
ठीक नहीं होगा यह।
अपने बचने के लिए ही सही
आओ, साफ कर दें टेम्स की तरह हरेक नदी को
गन्दा भी किसी और ने तो नहीं किया न!
सरहदें तक न चीन्ह पाने वाली नदियों को
मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
मैं नहीं जानना चाहता अपनी सरहदें-सीमाएँ।
(आठ)
जब उतरेगी कोई सलिला प्रकोप पर
तब बुन नहीं पाएँगे हम
पुनर्वास के धागे किन्हीं विस्थापितों के लिए
नर्मदा का जल-स्तर एक इंच बढ़े
तो औकात में आ जाते हम सभी
अपनी शासन-प्रणालियों और
समस्त तकनीक के बावजूद।
(नौ)
सर्पिलाकार बल खाती इन नदियों में
मेरे जीवन की सुंदरता नहीं
खुद जीवन छिपा है।
मेरे स्वप्नों ने टूटने से क्षण भर पहले
स्नान किया है इनमें
और टूटकर जन्म दिया है इन्हीं में से किसी एक को।
इनकी स्नेहिल छुअन में
पसरे चुंबकीय मोह की वजह से
खिंचे चले आए सभी लोग
बसने इन्हीं के किनारे कहीं।
पूर्वज उनके भी इन्हीं सरिताओं के तटों पर बसे
जिनके नाम नहीं खुदे किसी इण्डिया गेट पर
लेकिन जिन्होंने नदियाँ बहा दीं अपने खून की
लाज रखने हित अपनी पागल किसी जिद की
मुझे ले चलो अपने तट पर, नदियो!
मैं ऐसी तमाम जिदों से मुखातिब होना चाहता हूँ।
(दस)
कुछ जलते दिए छोड़े हैं मैंने
एक गुमनाम नदी की धार में
पुरखों की अस्थियों के साथ ही
कि वे ले जाएँ मेरा एक ऐसा संदेश
जिसे मैं किसी के सामने कह नहीं सकता था
वादा किया है इन नदियों ने मुझसे
बिल्कुल निजी तौर पर
कि भले शापित हो जाएँ वे किसी फल्गू की तरह
जहाँ नामोनिशान तक न हो किसी पानी का भी
कि वे भले बूढ़ी हो जाएँ
भर जाएँ गाद या नदभार से
पर वे दम लेंगी संदेशा पहुँचाकर ही,
मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
कि मुझे सीखना है वादा निभाना।